समर निंद्य है / भाग २
अहंकार के साथ घृणा का जहाँ द्वंद हो जारी; ऊपर, शान्ति, तलातल में हो छिटक रही चिंगारी; पढ़कर भी संकेत सजग हों किन्तु, न सत्ताधारी; दुर्मति और अनल में दें आहुतियाँ बारी-बारी; दबे हुए आवेग वहाँ यदि उबल किसी दिन फूटें, संयम छोड़, काल बन मानव अन्यायी पर टूटें, तुम विषण्ण हो समझ हुआ जगदाह तुम्हारे कर से। सोचो तो, क्या अग्नि समर की बरसी थी अंबर से? कुरुक्षेत्र से पूर्व नहीं क्या समर लगा था चलने ? प्रतिहिंसा का दीप भयानक हृदय-हृदय में बलने ? शान्ति नहीं तब तक; जब तक सुख-भाग न नर का सम हो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।

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