बोधिसत्व
सिमट विश्व-वेदना निखिल बज उठी करुण अन्तर में, देव ! हुंकरित हुआ कठिन युगधर्म तुम्हारे स्वर में। काँटों पर कलियों, गैरिक पर किया मुकुट का त्याग किस सुलग्न में जगा प्रभो ! यौवन का तीव्र विराग ? चले ममता का बंधन तोड़ विश्व की महामुक्ति की ओर। तप की आग, त्याग की ज्वाला से प्रबोध-संधान किया, विष पी स्वयं, अमृत जीवन का तृषित विश्व को दान किया। वैशाली की धूल चरण चूमने ललक ललचाती है, स्मृति-पूजन में तप-कानन की लता पुष्प बरसाती है। वट के नीचे खड़ी खोजती लिए सुजाता खीर तुम्हें, बोधिवृक्ष-तल बुला रहे कलरव में कोकिल-कीर तुम्हें। शस्त्र-भार से विकल खोजती रह-रह धरा अधीर तुम्हें, प्रभो ! पुकार रही व्याकुल मानवता की जंजीर तुम्हें। आह ! सभ्यता के प्राङ्गण में आज गरल-वर्षण कैसा ! धृणा सिखा निर्वाण दिलानेवाला यह दर्शन कैसा ! स्मृतियों का अंधेर ! शास्त्र का दम्भ ! तर्क का छल कैसा ! दीन दुखी असहाय जनों पर अत्याचार प्रबल कैसा! आज दीनता को प्रभु की पूजा का भी अधिकार नहीं, देव ! बना था क्या दुखियों के लिए निठुर संसार नहीं? धन-पिशाच की विजय, धर्म की पावन ज्योति अदृश्य हुई, दौड़ो बोधिसत्त्व ! भारत में मानवता अस्पृश्य हुई। धूप-दीप, आरती, कुसुम ले भक्त प्रेम-वश आते हैं, मन्दिर का पट बन्द देख ‘जय’ कह निराश फिर जाते हैं। शबरी के जूठे बेरों से आज राम को प्रेम नहीं, मेवा छोड़ शाक खाने का याद नाथ को नेम नहीं। पर, गुलाब-जल में गरीब के अश्रु राम क्या पायेंगे ? बिना नहाये इस जल में क्या नारायण कहलायेंगे ? मनुज-मेघ के पोषक दानव आज निपट निर्द्वन्द्व हुए; कैसे बचे दीन ? प्रभु भी धनियों के गृह में बन्द हुए। अनाचार की तीव्र आँच में अपमानित अकुलाते हैं , जागो बोधिसत्त्व ! भारत के हरिजन तुम्हें बुलाते हैं। जागो विप्लव के वाक्‌ ! दम्भियों के इन अत्याचारों से , जागो, हे जागो, तप-निधान ! दलितों के हाहाकारों से। जागो, गांधी पर किये गए नरपशु-पतितों के वारों से, जागो, मैत्री-निर्घोष ! आज व्यापक युगधर्म-पुकारों से। जागो, गौतम ! जागो, महान ! जागो, अतीत के क्रांति-गान ! जागो, जगती के धर्म-तत्त्व ! जागो, हे ! जागो बोधिसत्त्व !

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