संबल
सोच रहा, कुछ गा न रहा मैं। निज सागर को थाह रहा हूँ, खोज गीत में राह रहा हूँ, पर, यह तो सब कुछ अपने हित, औरों को समझा न रहा मैं। वातायन शत खोल हृदय के, कुछ निर्वाक खड़ा विस्मय से, उठा द्वार-पट चकित झाँक अपनेपन को पहचान रहा मैं। ग्रन्थि हृदय की खोल रहा हूँ, उन्मन-सा कुछ बोल रहा हूँ, मन का अलस खेल यह गुनगुन, सचमुच, गीत बना न रहा मैं। देखी दृश्य-जगत की झाँकी, अब आगे कितना है बाकी? गहन शून्य में मग्न, अचेतन, कर अगीत का ध्यान रहा मैं। चरण-चरण साधन का श्रम है, गीत पथिक की शान्ति परम है, ये मेरे संबल जीवन के, जग का मन बहला न रहा मैं। एक निरीह पथिक निज मग का मैं न सुयश-भिक्षुक इस जग का, अपनी ही जागृति का स्वर यह, बन्धु, और कुछ गा न रहा मैं। सोच रहा, समझा न रहा मैं।

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