समय
जर्जरवपुष्‌! विशाल! महादनुज! विकराल! भीमाकृति! बढ़, बढ़, कबन्ध-सा कर फैलाए; लील, दीर्घ भुज-बन्ध-बीच जो कुछ आ पाए। बढ़, बढ़, चारों ओर, छोड़, निज ग्रास न कोई, रह जाए अविशिष्ट सृष्टि का ह्रास न कोई। भर बुभुक्षु! निज उदर तुच्छतम द्रव्य-निकर से, केवल, अचिर, असार, त्याज्य, मिथ्या, नश्वर से; सब खाकर भी हाय, मिला कितना कम तुझको! सब खोकर भी किन्तु, घटा कितना कम मुझको! खाकर जग का दुरित एक दिन तू मदमाता, होगा अन्तिम ग्रास स्वयं सर्वभुक क्षुधा का। तब भी कमल-प्रफुल्ल रहेगा शास्वत जीवन, लहरायेगा जिसे घेर किरणों का प्लावन। आयेगी वह घड़ी, मलिन पट मिट्टी का तज, रश्मि-स्नात सब प्राण तारकों से निज को सज, आ बैठेंगे घेर देवता का सिंहासन; लील, समय, मल, कलुष कि हम पायें नवजीवन। वह जीवन जिसमें न जरा, रुज, क्षय का भय है, जो निसर्गतः कलजयी है, मृत्युंजय है।

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