रसवन्ती (कविता)
अरी ओ रसवन्ती सुकुमार ! लिये क्रीड़ा-वंशी दिन-रात पलातक शिशु-सा मैं अनजान, कर्म के कोलाहल से दूर फिरा गाता फूलों के गान। कोकिलों ने सिखलाया कभी माधवी-कु़ञ्नों का मधु राग, कण्ठ में आ बैठी अज्ञात कभी बाड़व की दाहक आग। पत्तियों फूलों की सुकुमार गयीं हीरे-से दिल को चीर, कभी कलिकाओं के मुख देख अचानक ढुलक पड़ा दृग-नीर। तॄणों में कभी खोजता फिरा विकल मानवता का कल्याण, बैठ खण्डहर मे करता रहा कभी निशि-भर अतीत का ध्यान. श्रवण कर चलदल-सा उर फटा दलित देशों का हाहाकार, देखकर सिरपर मारा हाथ सभ्यता का जलता श्रृंगार.

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