दीन
सह जाते हो उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न, हृदय तुम्हारा दुबला होता नग्न, अन्तिम आशा के कानों में स्पन्दित हम - सबके प्राणों में अपने उर की तप्त व्यथाएँ, क्षीण कण्ठ की करुण कथाएँ कह जाते हो और जगत की ओर ताककर दुःख हृदय का क्षोभ त्यागकर, सह जाते हो। कह जाते हो- "यहाँ कभी मत आना, उत्पीड़न का राज्य दुःख ही दुःख यहाँ है सदा उठाना, क्रूर यहाँ पर कहलाता है शूर, और हृदय का शूर सदा ही दुर्बल क्रूर, स्वार्थ सदा ही रहता परार्थ से दूर, यहाँ परार्थ वही, जो रहे स्वार्थ से हो भरपूर, जगतकी निद्रा, है जागरण, और जागरण जगत का - इस संसृति का अन्त - विराम - मरण अविराम घात - आघात आह ! उत्पात! यही जग - जीवन के दिन-रात। यही मेरा, इनका, उनका, सबका स्पन्दन, हास्य से मिला हुआ क्रन्दन। यही मेरा, इनका, उनका, सबका जीवन, दिवस का किरणोज्ज्वल उत्थान, रात्रि की सुप्ति, पतन; दिवस की कर्म - कुटिल तम - भ्रान्ति रात्रि का मोह, स्वप्न भी भ्रान्ति, सदा अशान्ति!"

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