फ़साद-ए-दुनिया मिटा चुके हैं हुसूल-ए-हस्ती मिटा चुके हैं
ख़ुदाई अपने में पा चुके हैं मुझे गले ये लगा चुके हैं
नहीं नज़ाकत से हम में ताक़त उठाएँ जो नाज़-ए-हूर-ए-जन्नत
कि नाज़-ए-शमशीर-ए-पुर-नज़ाकत हम अपने सर पर उठा चुके हैं
नजात हो या सज़ा हो मेरी मिले जहन्नम कि पाऊँ जन्नत
हम अब तो उन के क़दम पे अपना गुनह-भरा सर झुका चुके हैं
नहीं ज़बाँ में है इतनी ताक़त जो शुक्र लाएँ बजा हम उन का
कि दाम-ए-हस्ती से मुझ को अपने इक हाथ में वो छुड़ा चुके हैं
वजूद से हम अदम में आ कर मकीं हुए ला-मकाँ के जा कर
हम अपने को उन की तेग़ खा कर मिटा मिटा कर बना चुके हैं
यही हैं अदना सी इक अदा से जिन्हों ने बरहम है कि ख़ुदाई
यही हैं अक्सर क़ज़ा के जिन से फ़रिश्ते भी ज़क उठा चुके हैं
ये कह दो बस मौत से हो रुख़्सत क्यूँ नाहक़ आई है उस की शामत
कि दर तलक वो मसीह-ख़सलत मिरी अयादत को आ चुके हैं
जो बात माने तो ऐन शफ़क़त न माने तो ऐन हुस्न-ए-ख़ूबी
'रसा' भला हम को दख़्ल क्या अब हम अपनी हालत सुना चुके हैं