बुत-ए-काफ़िर जो तू मुझ से ख़फ़ा है
बुत-ए-काफ़िर जो तू मुझ से ख़फ़ा हो नहीं कुछ ख़ौफ़ मेरा भी ख़ुदा है ये दर-पर्दा सितारों की सदा है गली-कूचा में गर कहिए बजा है रक़ीबों में वो होंगे सुर्ख़-रू आज हमारे क़त्ल का बेड़ा लिया है यही है तार उस मुतरिब का हर रोज़ नया इक राग ला कर छेड़ता है शुनीदा कै बवद मानिंद-ए-दीद तुझे देखा है हूरों को सुना है पहुँचता हूँ जो मैं हर रोज़ जा कर तो कहते हैं ग़ज़ब तू भी 'रसा' है

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