दश्त-पैमाई का गर क़स्द मुकर्रर होगा
दश्त-पैमाई का गर क़स्द मुकर्रर होगा हर सर-ए-ख़ार पए-आबला नश्तर होगा मय-कदे से तिरा दीवाना जो बाहर होगा एक में शीशा और इक हाथ में साग़र होगा हल्क़ा-ए-चशम-ए-सनम लिख के ये कहता है क़लम बस कि मरकज़ से क़दम अपना न बाहर होगा दिल न देना कभी इन संग-दिलों को यारो चूर होवेगा जो शीशा तह-ए-पत्थर होगा देख लेता वो अगर रुख़ की तजल्ली तेरे आइना ख़ाना-ए-मायूसी में शश्दर होगा चाक कर डालूँगा दामान-ए-कफ़न वहशत से आस्तीं से न मिरा हाथ जो बाहर होगा ऐ 'रसा' जैसा है बरगश्ता ज़माना हम से ऐसा बरगश्ता किसी का न मुक़द्दर होगा

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