बैठे जो शाम से तिरे दर पे सहर हुई
अफ़्सोस ऐ क़मर कि न मुतलक़ ख़बर हुई
अरमान-ए-वस्ल यूँही रहा सो गए नसीब
जब आँख खुल गई तो यकायक सहर हुई
दिल आशिक़ों के छिद गए तिरछी निगाह से
मिज़्गाँ की नोक-ए-दुश्मन-ए-जानी जिगर हुई
पछताता हूँ कि आँख अबस तुम से लड़ गई
बर्छी हमारे हक़ में तुम्हारी नज़र हुई
छानी कहाँ न ख़ाक न पाया कहीं तुम्हें
मिट्टी मिरी ख़राब अबस दर-ब-दर हुई
ध्यान आ गया जो शाम को उस ज़ुल्फ़ का 'रसा'
उलझन में सारी रात हमारी बसर हुई