ओला
एक सफेद बड़ा-सा ओला, था मानो हीरे का गोला! हरी घास पर पड़ा हुआ था, वहीं पास मैं खड़ा हुआ था! मैंने पूछा क्या है भाई, तब उसने यों कथा सुनाई! जो मैं अपना हाल बताऊँ, कहने में भी लज्जा पाऊँ! पर मैं तुझे सुनाऊँगा सब, कुछ भी नहीं छिपाऊँगा अब! जो मेरा इतिहास सुनेंगे, वे उससे कुछ सार चुनेंगे! यद्यपि मैं न अब रहा कहीं का, वासी हूँ मैं किंतु यहीं का! सूरत मेरी बदल गई है, दीख रही वह तुम्हें नई है! मुझमें आर्द्रभाव था इतना, जल में हो सकता है जितना। मैं मोती-जैसा निर्मल था, तरल किंतु अत्यंत सरल था! एक रोज जब दोपहरी थी मेरे पास छाँव गहरी थी रवि ने अपना हाथ बढ़ाया और गगन में मुझे उठाया देखने लगा मै रवि की छवि को सुरगण मुझे देखने आये दिव्य नगाड़े थे बजाये भूतल से जो उठा गगन में गर्व हुआ मेरे मन में मुझे क्रूरता ने आ घेरा तब देवों ने कहा वहाँ पर क्रूरों का क्या काम यहाँ पर देकर मुझे पावँ का झटका पवन देव ने नीचे पटका पड़ा पड़ा पछता रहा हूँ हरी घास में घुला जा रहा हूँ।
This poem was reported incomplete by Smt. Mridula Dang. Her generous contribution has helped complete major parts of this poetry. However, it still seems to have at least 2 lines missing.
It was first published in 'Baal-Kavita Saraswati', March 1916.

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