अँधेरी रात
अँधेरी रात पी लेती है जैसे छाया को ऐसे पी लेता है अर्थों को अँधेरा मन तभी तो आज हवा फागुन की डालियों में अटक रही – सी है और खटक रही- सी है नयी आयी हुई ऊष्मा अभी-अभी फूटी हुई कोंपलों को बहुत दूर दक्षिण की तरफ़ नीली है पहाड़ की चोटी और लोटी- लोटी लग रही है आँगन के पौधे की आत्मा स्तब्ध इस शाम के पाँवों पर

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