लफ्फा़ज़ मैं बनाम निराला
लाख शब्दों के बराबर है एक तस्वीर ! मेरे मन में है एक ऐसी झाँकी जो मेरे शब्दों ने कभी नहीं आँकी शायद इसीलिए कि, हो नही पाता मेरे किए लाख शब्दों का कुछ- न उपन्यास न महाकाव्य ! तो क्या कूँची उठा लूँ रंग दूँ रंगों में निराला को ? आदमियों में उस सबसे आला को? किन्तु हाय, उसे मैंने सिवा तस्वीरों के देखा भी तो नहीं है ? कैसे खीचूँ, कैसे बनाऊँ उसे मेरे पास मौलिक कोई रेखा भी तो नहीं है ? उधार रेखाएँ कैसे लूँ इसके-उसके मन की ! मेरे मन पर तो छाप उसकी शब्दों वाली है जो अतीव शक्तिशाली है- ‘राम की शक्ति पूजा’ ‘सरोज-स्मृति’ यहाँ तक कि ‘जूही की कली’ अपने भीतर की हर गली इन्हीं से देखी है प्रकाशित मैंने, और जहाँ रवि न पहुँचे उसे वहाँ पहुँचने वाला कवि माना है, फिर भी कह सकता हूँ क्या कि मैंने निराला को जाना है ? सच कहो तो बिना जाने ही किसी वजह से अभिभूत होकर मैंने उसे इतना बड़ा मान लिया है- कि अपनी अक्ल की धरती पर उस आसमान का चंदोबा तान लिया है और अब तारे गिन रहा हूँ उस व्यक्ति से मिलने की प्रतीक्षा में न लिखूंगा हरफ, न बनाऊंगा तस्वी्र ! क्यों कि‍ हरफ असम्भव है, तस्वीर उधार और मैं हूँ आदत से लाचार- श्रम नहीं करूँगा यहाँ तक कि निराला को ठीक-ठीक जानने में डरूँगा, बगलें झाँकूँगा, कान में कहता हूँ तुमसे मुझ से अब मत कहना मैं क्या खाकर उसकी तस्वीर आँकूँगा !

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