लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए
लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए हम हर बुर्ज में घटते घटते सुब्ह तलक गुमनाम हुए उन लोगों की बात करो जो इश्क़ में ख़ुश-अंजाम हुए नज्द में क़ैस यहाँ पर 'इंशा' ख़ार हुए नाकाम हुए किस का चमकता चेहरा लाएँ किस सूरज से माँगें धूप घूर अँधेरा छा जाता है ख़ल्वत-ए-दिल में शाम हुए एक से एक जुनूँ का मारा इस बस्ती में रहता है एक हमीं हुशियार थे यारो एक हमीं बद-नाम हुए शौक़ की आग नफ़स की गर्मी घटते घटते सर्द न हो चाह की राह दिखा कर तुम तो वक़्फ़-ए-दरीचा-ओ-बाम हुए उन से बहार ओ बाग़ की बातें कर के जी को दुखाना क्या जिन को एक ज़माना गुज़रा कुंज-ए-क़फ़स में राम हुए 'इंशा'-साहिब पौ फटती है तारे डूबे सुब्ह हुई बात तुम्हारी मान के हम तो शब भर बे-आराम हुए

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