कहीं नहीं बचे
कहीं नहीं बचे हरे वृक्ष न ठीक सागर बचे हैं न ठीक नदियाँ पहाड़ उदास हैं और झरने लगभग चुप आँखों में घिरता है अँधेरा घुप दिन दहाड़े यों जैसे बदल गई हो तलघर में दुनिया कहीं नहीं बचे ठीक हरे वृक्ष कहीं नहीं बचा ठीक चमकता सूरज चांदनी उछालता चांद स्निग्धता बखेरते तारे काहे के सहारे खड़े कभी की उत्साहवन्त सदियाँ इसीलिए चली जा रही हैं वे सिर झुकाये हरेपन से हीन सूखेपन की ओर पंछियों के आसमान में चक्कर काटते दल नजर नहीं आते क्योंकि बनाते थे वे जिन पर घोंसले वे वृक्ष कट चुके हैं क्या जाने अधूरे और बंजर हम अब और किस बात के लिए रुके हैं ऊबते क्यों नहीं हैं इस तरंगहीनता और सूखेपन से उठते क्यों नहीं हैं यों कि भर दें फिर से धरती को ठीक निर्झरों नदियों पहाड़ों वन से!

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