हँसी मासूम सी बच्चों की कापी में इबारत सी
हँसी मासूम सी बच्चों की कापी में इबारत सी हिरन की पीठ पर बैठे परिंदे की शरारत सी वो जैसे सर्दियों में गर्म कपड़े दे फ़क़ीरों को लबों पे मुस्कुराहट थी मगर कैसी हक़ारत सी उदासी पत-झड़ों की शाम ओढ़े रास्ता तकती पहाड़ी पर हज़ारों साल की कोई इमारत सी सजाए बाज़ुओं पर बाज़ू वो मैदाँ में तन्हा था चमकती थी ये बस्ती धूप में ताराज ओ ग़ारत सी मेरी आँखों मेरे होंटों पे ये कैसी तमाज़त है कबूतर के परों की रेशमी उजली हरारत सी खिला दे फूल मेरे बाग़ में पैग़म्बरों जैसा रक़म हो जिस की पेशानी पे इक आयत बशारत सी

Read Next