हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते जिस तरह हमारे बाजुओं में मछलियाँ हैं, जिस तरह बैलों की पीठ पर उभरे सोटियों के निशान हैं, जिस तरह कर्ज़ के काग़ज़ों में हमारा सहमा और सिकुड़ा भविष्‍य है हम ज़िन्दगी, बराबरी या कुछ भी और इसी तरह सचमुच का चाहते हैं हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते और हम सब कुछ सचमुच का देखना चाहते हैं ज़िन्दगी, समाजवाद, या कुछ भी और..

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