हमारे लहू को आदत है
हमारे लहू को आदत है मौसम नहीं देखता, महफ़िल नहीं देखता ज़िन्दगी के जश्न शुरू कर लेता है सूली के गीत छेड़ लेता है शब्द हैं की पत्थरों पर बह-बहकर घिस जाते हैं लहू है की तब भी गाता है ज़रा सोचें की रूठी सर्द रातों को कौन मनाए ? निर्मोही पलों को हथेलियों पर कौन खिलाए ? लहू ही है जो रोज़ धाराओं के होंठ चूमता है लहू तारीख़ की दीवारों को उलांघ आता है यह जश्न यह गीत किसी को बहुत हैं -- जो कल तक हमारे लहू की ख़ामोश नदी में तैरने का अभ्यास करते थे ।

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