निरंजन धन तुम्हरो दरबार
निरंजन धन तुम्हरो दरबार । जहाँ न तनिक न्याय विचार ।। रंगमहल में बसें मसखरे, पास तेरे सरदार । धूर-धूप में साधो विराजें, होये भवनिधि पार ।। वेश्या ओढे़ खासा मखमल, गल मोतिन का हार । पतिव्रता को मिले न खादी सूखा ग्रास अहार ।। पाखंडी को जग में आदर, सन्त को कहें लबार । अज्ञानी को परम‌ ब्रहम ज्ञानी को मूढ़ गंवार ।। साँच कहे जग मारन धावे, झूठन को इतबार । कहत कबीर फकीर पुकारी, जग उल्टा व्यवहार ।। निरंजन धन तुम्हरो दरबार ।

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