पूछता क्यों शेष कितनी रात?
पूछता क्यों शेष कितनी रात? छू नखों की क्रांति चिर संकेत पर जिनके जला तू स्निग्ध सुधि जिनकी लिये कज्जल-दिशा में हँस चला तू परिधि बन घेरे तुझे, वे उँगलियाँ अवदात! झर गये ख्रद्योत सारे, तिमिर-वात्याचक्र में सब पिस गये अनमोल तारे; बुझ गई पवि के हृदय में काँपकर विद्युत-शिखा रे! साथ तेरा चाहती एकाकिनी बरसात! व्यंग्यमय है क्षितिज-घेरा प्रश्नमय हर क्षण निठुर पूछता सा परिचय बसेरा; आज उत्तर हो सभी का ज्वालवाही श्वास तेरा! छीजता है इधर तू, उस ओर बढता प्रात! प्रणय लौ की आरती ले धूम लेखा स्वर्ण-अक्षत नील-कुमकुम वारती ले मूक प्राणों में व्यथा की स्नेह-उज्जवल भारती ले मिल, अरे बढ़ रहे यदि प्रलय झंझावात। कौन भय की बात। पूछता क्यों कितनी रात?

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