संगति का अंग
हरिजन सेती रूसणा, संसारी सूँ हेत । ते नर कदे न नीपजैं, ज्यूं कालर का खेत ॥1॥ भावार्थ - हरिजन से तो रूठना और संसारी लोगों के साथ प्रेम करना - ऐसों के अन्तर में भक्ति-भावना कभी उपज नहीं सकती, जैसे खारवाले खेत में कोई भी बीज उगता नहीं । मूरख संग न कीजिए, लोहा जलि न तिराइ । कदली-सीप-भूवंग मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥2॥ भावार्थ - मूर्ख का साथ कभी नहीं करना चाहिए, उससे कुछ भी फलित होने का नहीं । लोहे की नाव पर चढ़कर कौन पार जा सकता है ? वर्षा की बूँद केले पर पड़ी, सीप में पड़ी और सांप के मुख में पड़ी - परिणाम अलग-अलग हुए- कपूर बन गया, मोती बना और विष बना । माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाइ । ताली पीटै सिरि धुनैं, मीठैं बोई माइ ॥3॥ भावार्थ - मक्खी बेचारी गुड़ में धंस गई, फंस गई, पंख उसके चेंप से लिपट गये ।मिठाई के लालच में वह मर गई, हाथ मलती और सिर पीटती हुई। ऊँचे कुल क्या जनमियां, जे करनी ऊँच न होइ । सोवरन कलस सुरै भर्‌या, साधू निंदा सोइ ॥4॥ भावार्थ - ऊँचे कुल में जन्म लेने से क्या होता है, यदि करनी ऊँची न हुई ? साधुजन सोने के उस कलश की निन्दा ही करते हैं, जिसमें कि मदरा भरी हो । `कबिरा' खाई कोट की, पानी पिवै न कोइ । जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥5॥ भावार्थ - कबीर कहते हैं - किले को घेरे हुए खाई का पानी कोई नहीं पीता, कौन पियेगा वह गंदला पानी ? पर जब वही पानी गंगा में जाकर मिल जाता है, तब वह गंगोदक बन जाता है, परम पवित्र ! `कबीर' तन पंषो भया, जहाँ मन तहाँ उड़ि जाइ । जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥6॥ भावार्थ - कबीर कहते हैं - यह तन मानो पक्षी हो गया है, मन इसे चाहे जहाँ उड़ा ले जाता है । जिसे जैसी भी संगति मिलती है- संग और कुसंग - वह वैसा ही फल भोगता है । [ मतलब यह कि मन ही अच्छी और बुरी संगति मे ले जाकर वैसे ही फल देता है ।] काजल केरी कोठड़ी, तैसा यहु संसार । बलिहारी ता दास की, पैसि र निकसणहार ॥7॥ भावार्थ - यह दुनिया तो काजल की कोठरी है, जो भी इसमें पैठा, उसे कुछ-न-कुछ कालिख लग ही जायगी । धन्य है उस प्रभु-भक्त को, जो इसमें पैठकर बिना कालिख लगे साफ निकल आता है ।

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