कामी का अंग
परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं। दिवस चारि सरसा रहै, अंति समूला जाहिं॥ परनारि का राचणौं, जिसी लहसण की खानि। खूणैं बैसि र खाइए, परगट होइ दिवानि॥ भगति बिगाड़ी कामियाँ, इन्द्री केरै स्वादि। हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि॥ कामी अमी न भावई, विष ही कौं लै सोधि। कुबुद्धि न जाई जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोधि॥ कामी लज्या ना करै, मन माहें अहिलाद। नींद न मांगै सांथरा, भूख न मांगै स्वाद॥ ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करता। ताथैं संसारी भला, मन में रहै डरता॥

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