अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसौ कहियां।
कै हरि आयां भाजिसी, कै हरि ही पास गयां॥1॥
यहु तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं।
लेखणिं करूं करंक की, लिखि-लिखि राम पठाउं॥2॥
बिरह-भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
राम-बियोग ना जिबै जिवै तो बौरा होइ॥3॥
सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त।
और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त॥4॥
अंषड़ियां झाईं पड़ीं, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़िंयाँ छाला पड़्या, राम पुकारि-पुकारि॥5॥
इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीव।
लोही सींची तेल ज्यूं, कब मुख देखौं पीव॥6॥
`कबीर' हँसणां दूरि करि, करि रोवण सौं चित्त।
बिन रोयां क्यूं पाइए, प्रेम पियारा मित्त॥7॥
जौ रोऊँ तौ बल घटै, हँसौं तो राम रिसाइ।
मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ॥8॥
हांसी खेलौं हरि मिलै, कोण सहै षरसान।
काम क्रोध त्रिष्णां तजै, तोहि मिलै भगवान॥9॥
पूत पियारौ पिता कौं, गौंहनि लागो धाइ।
लोभ-मिठाई हाथि दे, आपण गयो भुलाइ॥10॥
परबति परबति मैं फिर्या, नैन गँवाये रोइ।
सो बूटी पाऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ॥11॥
सुखिया सब संसार है, खावै और सौवे।
दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रौवे॥12॥
जा कारणि में ढूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ।
धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ॥13॥
जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नाहिं।
सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माहिं ॥14॥
देवल माहैं देहुरी, तिल जे है बिसतार।
माहैं पाती माहिं जल, माहैं पूजणहार॥15॥