रस का अंग
`कबीर' भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ। सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई॥ `कबीर' हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि। पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि॥ हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार। मैंमंता घूमत रहै, नाहीं तन की सार॥ सबै रसाइण मैं किया, हरि सा और न कोइ। तिल इक घट मैं संचरै, तौ सब तन कंचन होई॥

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