सहज मिले अविनासी
पानी बिच मीन पियासी। मोहि सुनि सुनि आवत हाँसी॥ आतम ग्यान बिना सब सूना, क्या मथुरा क्या कासी। घर में वसत धरीं नहिं सूझै, बाहर खोजन जासी॥ मृग की नाभि माँहि कस्तूरी, बन-बन फिरत उदासी। कहत कबीर, सुनौ भाई साधो, सहज मिले अविनासी॥

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