मरूँ पर माँगू नहीं, अपने तन के काज।
परमारथ के कारने, मोहिं न आवै लाज॥
सुख के संगी स्वारथी, दुःख में रहते दूर।
कहैं कबीर परमारथी, दुःख - सुख सदा हजूर॥
स्वारथ सुखा लाकड़ा, छाँह बिहूना सूल।
पीपल परमारथ भजो, सुखसागर को मूल ॥
परमारथ पाको रतन, कबहुँ न दीजै पीठ।
स्वारथ सेमल फूल है, कली अपूठी पीठ॥
प्रीति रीति सब अर्थ की, परमारथ की नहिं।
कहैं कबीर परमारथी, बिरला कोई कलि माहिं॥
साँझ पड़ी दिन ढल गया, बधिन घेरी गाय।
गाय बिचारी न मरी, बधि न भूखी जाय॥
सूम सदा ही उद्धरे, दाता जाय नरक्क।
कहैं कबीर यह साखि सुनि, मति कोई जाव सरक्क॥
ऊनै आई बादरी, बरसन लगा अंगार।
उठि कबीरा धाह दै, दाझत है संसार॥
भँवरा बारी परिहरा, मेवा बिलमा जाय।
बावन चन्दन धर किया, भूति गया बनराय॥
झाल उठी झोली जली, खपरा फूटम फूट।
योगी था सो रमि गया, आसन रहि भभूत॥