मन की महिमा
कबीर मन तो एक है, भावै तहाँ लगाव। भावै गुरु की भक्ति करू, भावै विषय कमाव॥ कबीर मनहिं गयन्द है, अंकुश दै दै राखु। विष की बेली परिहारो, अमृत का फल चाखू ॥ मन के मते न चलिये, मन के मते अनेक। जो मन पर असवार है, सो साधु कोई एक ॥ मन के मारे बन गये, बन तजि बस्ती माहिं । कहैं कबीर क्या कीजिये, यह मन ठहरै नाहिं ॥ मन को मारूँ पटकि के, टूक टूक है जाय। विष कि क्यारी बोय के, लुनता क्यों पछिताय ॥ मन दाता मन लालची, मन राजा मन रंक। जो यह मनगुरु सों मिलै, तो गुरु मिलै निसंक ॥ मनुवा तो पंछी भया, उड़ि के चला अकास। ऊपर ही ते गिरि पड़ा, मन माया के पास ॥ मन पंछी तब लग उड़ै, विषय वासना माहिं। ज्ञान बाज के झपट में, तब लगि आवै नाहिं ॥ मनवा तो फूला फिरै, कहै जो करूँ धरम। कोटि करम सिर पै चढ़े, चेति न देखे मरम ॥ मन की घाली हुँ गयी, मन की घालि जोऊँ। सँग जो परी कुसंग के, हटै हाट बिकाऊँ ॥ महमंता मन मारि ले, घट ही माहीं घेर। जबही चालै पीठ दे, आँकुस दै दै फेर ॥

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