जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय।
मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय॥
मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत।
मूये पीछे उठि लगा, ऐसा मेरा पूत॥
भक्त मरे क्या रोइये, जो अपने घर जाय।
रोइये साकट बपुरे, हाटों हाट बिकाय॥
मैं मेरा घर जालिया, लिया पलीता हाथ।
जो घर जारो आपना, चलो हमारे साथ॥
शब्द विचारी जो चले, गुरुमुख होय निहाल।
काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ न ग्रासै काल॥
जब लग आश शरीर की, मिरतक हुआ न जाय।
काया माया मन तजै, चौड़े रहा बजाय॥
मन को मिरतक देखि के, मति माने विश्वाश।
साधु तहाँ लौं भय करे, जौ लौं पिंजर साँस॥
कबीर मिरतक देखकर, मति धरो विश्वास।
कबहुँ जागै भूत है करे पिड़का नाश॥
अजहुँ तेरा सब मिटै, जो जग मानै हार।
घर में झजरा होत है, सो घर डारो जार॥
सत्संगति है सूप ज्यों, त्यागै फटकि असार।
कहैं कबीर गुरु नाम ले, परसै नहीँ विकार॥