साधु सती और सूरमा, इनका मता अगाध।
आशा छाड़े देह की, तिनमें अधिका साध॥
साधु सती और सूरमा, कबहु न फेरे पीठ।
तीनों निकासी बाहुरे, तिनका मुख नहीं दीठ॥
सती चमाके अग्नि सूँ, सूरा सीस डुलाय।
साधु जो चूकै टेक सों, तीन लोक अथड़ाय॥
सती डिगै तो नीच घर, सूर डिगै तो क्रूर।
साधु डिगै तो सिखर ते, गिरिमय चकनाचूर॥
साधु, सती और सूरमा, ज्ञानी औ गज दन्त।
ते निकसे नहिं बाहुरे, जो जुग जाहिं अनन्त॥
ये तीनों उलटे बुरे, साधु, सती और सूर।
जग में हँसी होयगी, मुख पर रहै न नूर॥