काल की महिमा
कबीर टुक टुक चोंगता, पल पल गयी बिहाय। जिन जंजाले पड़ि रहा, दियरा यमामा आय॥ जो उगै सो आथवै, फूले सो कुम्हिलाय। जो चुने सो ढ़हि पड़ै, जनमें सो मरि जाय॥ कबीर मन्दिर आपने, नित उठि करता आल। मरहट देखी डरपता, चौड़े दीया डाल॥ कबीर गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर। तेरे सिराने जम खड़ा, ज्यूँ अँधियारे चोर॥ आस - पास जोधा खड़े, सबै बजावै गाल। मंझ महल सेले चला, ऐसा परबल काल॥ बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावे थाल। आवन जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी का नाल॥ बालपन भोले गया, और जुवा महमंत। वृद्धपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त॥ घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान। छाप बिना गुरु नाम के, साकट रहा निदान॥ सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा विष्णु महेश। सुर नर मुनि औ लोक सब, सात रसातल सेस॥ काल फिरै सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान। कहैं कबीर घु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान॥ जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय। सो अब कहँ दीसै नहीं, छिन में गये बिलाय॥

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