सेवक की महिमा
सवेक - स्वामी एक मत, मत में मत मिली जाय। चतुराई रीझै नहीं, रीझै मन के भाय॥ सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहुँ जाय। जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय॥ आशा करै बैकुंठ की, दुरमति तीनों काल। शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल॥ यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय। सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय॥ शीलवन्त सुरज्ञान मत, अति उदार चित होय। लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय॥ ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत। सत्यवान परमारथी, आदर भाव सहेत॥ गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुवंग। कहैं कबीर बिसरै नहीं, यह गुरुमुख को अंग॥ गुरु आज्ञा लै आवहीं, गुरु आज्ञा लै जाय। कहैं कबीर सो सन्त प्रिये, बहु विधि अमृत पाय॥ सवेक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय। कहैं कबीर सेवा बिना, सवेक कभी न होय॥ अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय। ज्यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिछाय॥

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