चाल बकुल की चलत है, बहुरि कहावै हंस।
ते मुक्ता कैसे चुगे, पड़े काल के फंस॥
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खावै फाल॥
जौ मानुष ग्रह धर्म युत, राखै शील विचार।
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच सेवा सार॥
शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव।
क्या रमता क्या बैठता, क्या ग्रह कांदला छाँव॥
गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दूख।
कहैं कबीर ता दुःख पर वारों, कोटिक सूख॥
कवि तो कोटि कोटि हैं, सिर के मूड़े कोट।
मन के मूड़े देखि करि, ता संग लिजै ओट॥
बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम।
मद माया और इस्तरी, नहि सन्त के काम॥
भेष देख मत भूलये, बुझि लीजिये ज्ञान।
बिना कसौटी होत नहिं, कंचन की पहिचान॥
बैरागी बिरकात भला, गिरही चित्त उदार।
दोऊ चूकि खाली पड़े, ताके वार न पार॥
घर में रहै तो भक्ति करू, नातरू करू बैराग।
बैरागी बन्धन करै, ताका बड़ा अभागा॥
धारा तो दोनों भली, विरही के बैराग।
गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग॥