गुरु-महिमा
गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान। बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥१॥ गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय। कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥२॥ गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त। वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥३॥ कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय। जनम - जनम का मोरचा, पल में डारे धोया॥४॥ गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि - गढ़ि काढ़ै खोट। अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥५॥ गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान। तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान॥६॥ जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर। एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शारीर॥७॥ गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं। कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं॥८॥ गुरु सो प्रीतिनिवाहिये, जेहि तत निबहै संत। प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत॥९॥ गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर। आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर॥१०॥ गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कुछ नाहिं। उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं॥११॥ ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास। गुरु सेवा ते पाइए, सद् गुरु चरण निवास॥१२॥ सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय। सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥१३॥ पंडित यदि पढि गुनि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान। ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परमान॥१४॥ कहै कबीर तजि भरत को, नन्हा है कर पीव। तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव॥१५॥ सोई सोई नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम। कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहुं कुशल नहिं क्षेम॥१६॥ तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत। ते कहिये गुरु सनमुखां, कबहूँ न दीजै पीठ॥१७॥ अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहिं करै प्रतिपाल। अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल॥१८॥ करै दूरी अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदये। बलिहारी वे गुरु की हँस उबारि जु लेय॥१९॥ साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे वाखे मोय। जल सो अरक्षा परस नहिं, क्यों कर ऊजल होय॥२०॥ राजा की चोरी करे, रहै रंक की ओट। कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट॥२१॥ सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड। तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड॥२२॥ सतगुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय। धन्य शिष धन भाग तिहि, जो ऐसी सुधि पाय॥२३॥ सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय। भ्रम का भाँडा तोड़ी करि, रहै निराला होय॥२४॥ मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर। अब देवे को क्या रहा, यो कथि कहहिं कबीर॥२५॥ जेही खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव। कहैं कबीर सुन साधवा, करू सतगुरु की सेवा॥२६॥ जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान। तामें निपट अनूप है, सतगुरु लगा कान॥२७॥ डूबा औधर न तरै, मोहिं अंदेशा होय। लोभ नदी की धार में, कहा पड़ा नर सोय॥२८॥ केते पढी गुनि पचि मुए, योग यज्ञ तप लाय। बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय॥२९॥ सतगुरु खोजे संत, जीव काज को चाहहु। मेटो भव के अंक, आवा गवन निवारहु॥३०॥ यह सतगुरु उपदेश है, जो माने परतीत। करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जलजीत॥३१॥ जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरंध। अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द॥३२॥ जनीता बुझा नहीं बुझि, लिया नहीं गौन। अंधे को अंधा मिला, राह बतावे कौन॥३३॥

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