मुखम्मस
हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर, हमको भी पाला था माँ-बाप ने दुःख सह-सह कर , वक्ते-रुख्सत उन्हें इतना भी न आये कह कर, गोद में अश्क जो टपकें कभी रुख से बह कर , तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने को ! अपनी किस्मत में अजल ही से सितम रक्खा था, रंज रक्खा था मेहन रक्खी थी गम रक्खा था , किसको परवाह थी और किसमें ये दम रक्खा था, हमने जब वादी-ए-ग़ुरबत में क़दम रक्खा था , दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को ! अपना कुछ गम नहीं लेकिन ए ख़याल आता है, मादरे-हिन्द पे कब तक ये जवाल आता है , कौमी-आज़ादी का कब हिन्द पे साल आता है, कौम अपनी पे तो रह-रह के मलाल आता है , मुन्तजिर रहते हैं हम खाक में मिल जाने को  ! नौजवानों! जो तबीयत में तुम्हारी खटके, याद कर लेना कभी हमको भी भूले भटके , आपके अज्वे-वदन होवें जुदा कट-कट के, और सद-चाक हो माता का कलेजा फटके , पर न माथे पे शिकन आये कसम खाने को ! एक परवाने का बहता है लहू नस-नस में, अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की कसमें , सरफ़रोशी की अदा होती हैं यूँ ही रस्में, भाई खंजर से गले मिलते हैं सब आपस में , बहने तैयार चिताओं से लिपट जाने को ! सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं, पास जो कुछ है वो माता की नजर करते हैं , खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं! खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं , जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को ! नौजवानो ! यही मौका है उठो खुल खेलो, खिदमते-कौम में जो आये वला सब झेलो , देश के वास्ते सब अपनी जबानी दे दो , फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएँ ले लो , देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को ?
( बिस्मिल के मशहूर उर्दू मुखम्मस ) का काव्यानुवाद जज्वये-शहीद के द्वारा

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