चूहे की दिल्ली-यात्रा
चूहे ने यह कहा कि चूहिया! छाता और घड़ी दो, लाया था जो बड़े सेठ के घर से, वह पगड़ी दो। मटर-मूँग जो कुछ घर में है, वही सभी मिल खाना, खबरदार, तुम लोग कभी बिल से बाहर मत आना! बिल्ली एक बड़ी पाजी है रहती घात लगाए, जाने वह कब किसे दबोचे, किसको चट कर जाए। सो जाना सब लोग लगाकर दरवाजे में किल्ली, आज़ादी का जश्न देखने मैं जाता हूँ दिल्ली। चूँ-चूँ-चूँ, चूँ-चूँ-चूँ, चूँ-चूँ-चूँ, दिल्ली में देखूँगा आज़ादी का नया जमाना, लाल किले पर खूब तिरंगे झंडे का लहराना। अब न रहे, अंग्रेज, देश पर अपना ही काबू है, पहले जहाँ लाट साहब थे वहाँ आज बाबू है! घूमूँगा दिन-रात, करूँगा बातें नहीं किसी से, हाँ फुर्सत जो मिली, मिलूँगा जरा जवाहर जी से। गाँधी युग में कैन उड़ाए, अब चूहों की खिल्ली? आज़ादी का जश्न देखने मेैं जाता हूँ दिल्ली। चूँ-चूँ-चूँ, चूँ-चूँ-चूँ, चूँ-चूँ-चूँ, पहन-ओढ़कर चूहा निकला चुहिया को समझाकर, इधर-उधर आँखें दौड़ाईं बिल से बाहर आकर। कोई कहीं नहीं था, चारों ओर दिशा थी सूनी, शुभ साइत को देख हुई चूहे की हिम्तत दूनी। चला अकड़कर, छड़ी लिये, छाते को सिर पर ताने, मस्ती मन की बढ़ी, लगा चूँ-चूँ करके कुछ गाने! इतने में लो पड़ी दिखाई कहीं दूर पर बिल्ली, चूहेराम भगे पीछे को, दूर रह गई दिल्ली। चूँ-चूँ-चूँ, चूँ-चूँ-चूँ, चूँ-चूँ-चूँ,

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