बद्ध-2
बद्ध! ओ जग की निर्बलते! मैं ने कब कुछ माँगा तुझ से। आज शक्तियाँ मेरी ही फिर विमुख हुईं क्यों मुझ से? मेरा साहस ही परिभव में है मेरा प्रतिद्वन्द्वी- किस ललकार भरे स्वर में कहता है : 'बन्दी! बन्दी!' इस घन निर्जन में एकाकी प्राण सुन रहे, स्तब्ध हहर-हहर कर फिर-फिर आता एक प्रकम्पित शब्द- बद्ध!

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