रात, चलते हैं अकेले ही सितारे
रात, चलते हैं अकेले ही सितारे। एक निर्जन रिक्त नाले के पास मैंने एक स्थल को खोद मिट्टी के हरे ढेले निकाले दूर खोदा और खोदा और दोनों हाथ चलते जा रहे थे शक्ति से भरपूर। सुनाई दे रहे थे स्वर – बड़े अपस्वर घृणित रात्रिचरों के क्रूर। काले-से सुरों में बोलता, सुनसान था मैदान। जलती थी हमारी लालटैन उदास, एक निर्जन रिक्त नाले के पास। खुद चुका बिस्तर बहुत गहरा न देखा खोलकर चेहरा कि जो अपने हृदय-सा प्यार का टुकड़ा हमारी ज़िंदगी का एक टुकड़ा, प्राण का परिचय, हमारी आँख-सा अपना वही चेहरा ज़रा सिकुड़ा पड़ा था पीत, अपनी मृत्यु में अविभीत। वह निर्जीव, पर उस पर हमारे प्राण का अधिकार; यहाँ भी मोह है अनिवार, यहाँ भी स्नेह का अधिकार। बिस्तर खूब गहरा खोद, अपनी गोद से, रक्खा उसे नरम धरती-गोद। फिर मिट्टी, कि फिर मिट्टी, रखे फिर एक-दो पत्थर उढ़ा दी मृत्तिका की साँवली चादर हम चल पड़े लेकिन बहुत ही फ़िक्र से फिरकर, कि पीछे देखकर मन कर लिया था शांत। अपना धैर्य पृथ्वी के हृदय में रख दिया था। धैर्य पृथ्वी का हृदय में रख लिया था। उतनी भूमि है चिरंतन अधिकार मेरा, जिसकी गोद में मैंने सुलाया प्यार मेरा। आगे लालटैन उदास, पीछे, दो हमारे पास साथी। केवल पैर की ध्वनि के सहारे राह चलती जा रही थी।

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