सागर किनारे
तनिक ठहरूँ। चाँद उग आए, तभी जाऊँगा वहाँ नीचे कसमसाते रुद्ध सागर के किनारे। चाँद उग आए। न उस की बुझी फीकी चाँदनी में दिखें शायद वे दहकते लाल गुच्छ बुरूँस के जो तुम हो। न शायद चेत हो, मैं नहीं हूँ वह डगर गीली दूब से मेदुर, मोड़ पर जिस के नदी का कूल है, जल है, मोड़ के भीतर-घिरे हों बाँह में ज्यों-गुच्छ लाल बुरूँस के उत्फुल्ल। न आए याद, मैं हूँ किसी बीते साल के सीले कलेंडर की एक बस तारीख, जो हर साल आती है। एक बस तारीख-अंकों में लिखी ही जो न जावे जिसे केवल चंद्रमा का चिह्न ही बस करे सूचित- बंक-आधा-शून्य; उलटा बंक-काला वृत्त, यथा पूनो-तीज-तेरस-सप्तमी, निर्जला एकादशी-या अमावस्या। अँधेरे में ज्वार ललकेगा- व्यथा जागेगी। न जाने दीख क्या जाए जिसे आलोक फीका सोख लेता है। तनिक ठहरूँ। कसमसाते रुद्ध सागर के किनारे तभी जाऊँ वहाँ नीचे-चाँद उग आए।

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