पाश्र्व गिरि का नम्र, चीड़ों में
डगर चढ़ती उमंगों-सी
बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा
विहग-शिशु मौन नीड़ों में
मैंने आँख भर देखा
दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा
(भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद!)
क्षितिज ने पलक-सी खोली,
तमक कर दामिनी बोली-
'अरे यायावर! रहेगा याद?'