चश्मा-ए-दिलबर में ख़ुश अदा पाया
चश्‍म-ए-दिलबर में ख़ुश अदा पाया आलम-ए-दिल कूँ मुब्तिला पाया सैर सहरा की तूँ न कर हरगिज़ दिल के सेहरा में गर ख़ुदा पाया जब न आया था शिक्‍म-ए-मादर में इब्तिदा सूँ न इंतिहा पाया इस्‍म-ए-अल्लाह-ओ-मीम अहमद है हक़ सतीं हक़ कूँ हक़नुमा पाया बादशाह-ए-नजफ़ वली अल्‍लाह पीर-ए-कामिल अली रज़ा पाया उस मा'नी कूँ बुलहवस नादाँ क्‍यूँकि समझे 'वली' ने क्‍या पाया

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