किया हूँ जब सूँ वादा शाह-ए-ख़ूबाँ की ग़ुलामी का
किया हूँ जब सूँ वादा शाह-ए-ख़ूबाँ की ग़ुलामी का अलम बरपा हुआ है तब सूँ मेरी नेकनामी का उसे दुश्‍वार है जग में निकलना ग़‍म के फाँदे सूँ जो कुई देखा है तेरे बर मिनीं जामा दो दवामी का उठा रेहाँ अगरचे ख्‍व़ाजा-ए-बस्‍ताँ सरा लेकिन दिया तुझ ख़त कूँ ई याक़ूत लब सर ख़त ग़ुलामी का परी रूयाँ के कूचे में ख़बरदारी से जा ऐ दिल कि इत्राफ-ए-हरम में डर हमेशा है हरामी का बसे फ़रहाद के मानिंद कोह-ए-बीस्‍तों में जा अगर क़िस्‍सा सुने ख़ुसरो तिरी शीरीं कलामी का लगे ज्‍यूँ नख़्ल मातम सर्व-ए-गुलशन उसकी अँखियाँ में तमाशा जिनने देखा है सजन तुझ ख़ुशख़रामी का हक़ीक़त सूँ तिरी मुद्दत सिती वाक़िफ़ हैं ऐ ज़ाहिद अबस हम पुख़्ता मग़जाँ सूँ न कर इज़हार ख़ामी का 'वली' लिखता है तेरी मस्‍त अँखियाँ देख ऐ साक़ी बयाज़-ए-गर्दन-ए-मीना उपर दीवान 'जामी' का

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