हरचंद कि उस आहू-ए-वहशी में भड़क है
हरचंद कि उस आहू-ए-वहशी में भड़क है बेताब के दिल लेने कूँ लेकिन निधड़क है उश्‍शाक़ पे तुझ चश्‍म-ए-सितमगार का फिरना तरवार की ऊझड़ है या कत्ते की सड़क है गर्मी सूँ तेरी तब्‍अ की डरते हैं सियह बख़्त ग़ुस्‍से सूँ कड़कना तेरा बिजली की कड़क है तेरी तरफ़ अँखियाँ कूँ कहाँ ताब कि देखें सूरज सूँ ज़्यादा तेरे जामे की भड़क है करने कूँ 'वली' आशिक़-ए-बेताब कूँ ज़ख़्मी वो ज़ालिम-ए-बेरहम निपट ही निधड़क है

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