अयाँ है हर तरफ़ आलम में हुस्न-ए-बे-हिजाब उसका
बग़ैर अज़ दीदा-ए-हैराँ नहीं जग में निक़ाब उसका
हुआ है मुझ पे शम्अ-ए-बज़्म-ए-यकरंगी सूँ यूँ रौशन
के हर ज़र्रे ऊपर ताबाँ है दायम आफ़ताब उसका
करे है उशाक़ कूँ ज्यूँ सूरत-ए-दीवार-ए-हैरत सूँ
अगर परदे सूँ वा होवे जमाल-ए-बेहिजाब उसका
सजन ने यक नज़र देखा निगाह-ए-मस्त सूँ जिसकूँ
ख़राबात-ए-दो आलम में सदा है वोह ख़राब उसका
मेरा दिल पाक है अज़ बस, ’वली’ ! जंग-ए-कदूरत सूँ
हुआ ज्यूँ जौहर-ए-आईना मख़्फ़ी पेच-ओ-ताब उसका