फिर आई फस्ले गुल फिर जख़्मदह रह-रह के पकते हैं
फिर आई फ़स्ले गुल फिर जख़्मदह रह-रह के पकते हैं। मेरे दागे जिगर पर सूरते लाला लहकते हैं। नसीहत है अबस नासेह बयाँ नाहक ही बकते हैं। जो बहके दुख्तेरज से हैं वह कब इनसे बहकते हैं? कोई जाकर कहो ये आख़िरी पैगाम उस बुत से। अरे आ जा अभी दम तन में बाक़ी है सिसकते हैं। न बोसा लेने देते हैं न लगते हैं गले मेरे। अभी कम-उम्र हैं हर बात पर मुझ से झिझकते हैं। व गैरों को अदा से कत्ल जब बेबाक करते हैं। तो उसकी तेग़ को हम आह किस हैरत से तकते हैं। उड़ा लाए हो यह तर्जे सखुन किस से बताओ तो। दमे तक़दीर गोया बाग़ में बुलबुल चहकते हैं। 'रसा' की है तलाशे यार में यह दश्त-पैमाई। कि मिस्ले शीशा मेरे पाँव के छाले झलकते हैं।

Read Next