होली
कैसी होरी खिलाई। आग तन-मन में लगाई॥ पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई। पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥ तबौ नहिं हबस बुझाई। भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई। टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥ तुम्हें कैसर दोहाई। कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई। आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥ तुन्हें कछु लाज न आई।

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