रहैं क्यौं एक म्यान असि दोय
रहैं क्यौं एक म्यान असि दोय। जिन नैनन मैं हरि-रस छायो, तेहि क्यौं भावै कोय। जा तन मन मैं राहि रहै मोहन, तहाँ ग्यान क्यौं आवै। चाहो जितनी बात प्रबोधो, ह्याँ को जो पतिआवै। अमृत खाई अब देखि इनारुन, को मूरख जो भूलै। 'हरिचंद' ब्रज तो कदली-बन, काटौ तो फिरि फूलै॥

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