गंगा-वर्णन
नव उज्ज्वल जलधार हार हीरक सी सोहति। बिच-बिच छहरति बूंद मध्य मुक्ता मनि पोहति॥ लोल लहर लहि पवन एक पै इक इम आवत । जिमि नर-गन मन बिबिध मनोरथ करत मिटावत॥ सुभग स्वर्ग-सोपान सरिस सबके मन भावत। दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत॥ श्रीहरि-पद-नख-चंद्रकांत-मनि-द्रवित सुधारस। ब्रह्म कमण्डल मण्डन भव खण्डन सुर सरबस॥ शिवसिर-मालति-माल भगीरथ नृपति-पुण्य-फल। एरावत-गत गिरिपति-हिम-नग-कण्ठहार कल॥ सगर-सुवन सठ सहस परस जल मात्र उधारन। अगनित धारा रूप धारि सागर संचारन॥

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