ये जो सुना इक दिन वो हवेली यकसर बे-आसार गिरी
ये जो सुना इक दिन वो हवेली यकसर बे-आसार गिरी हम जब भी साए में बैठे दिल पर इक दीवार गिरी जूँही मुड़ कर देखा मैं ने बीच उठी थी इक दीवार बस यूँ समझो मेरे ऊपर बिजली सी इक बार गिरी धार पे बाड़ रखी जाए और हम उस के घायल ठहरें मैं ने देखा और नज़रों से उन पलकों की धार गिरी गिरने वाली उन तअमीरों में भी एक सलीक़ा था तुम ईंटों की पूछ रहे हो मिट्टी तक हमवार गिरी बेदारी के बिस्तर पर मैं उन के ख़्वाब सजाता हूँ नींद भी जिन की टाट के ऊपर ख़्वाबों से नादार गिरी ख़ूब ही थी वो क़ौम-ए-शहीदाँ यानी सब बे-ज़ख़म-ओ-ख़राश मैं भी उस सफ़ में था शामिल वो सफ़ जो बे-वार गिरी हर लम्हा घमसान का रन है कौन अपने औसान में है कौन है ये? अच्छा तो मैं हूँ लाश तो हाँ इक यार गिरी

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