ऐ वस्ल कुछ यहाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ
ऐ वस्ल कुछ यहाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ उस जिस्म की मैं जाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ तू आज मेरे घर में जो मेहमाँ है ईद है तू घर का मेज़बाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ खोली तो है ज़बान मगर इस की क्या बिसात मैं ज़हर की दुकाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ क्या एक कारोबार था वो रब्त-ए-जिस्म-ओ-जाँ कोई भी राएगाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ कितना जला हुआ हूँ बस अब क्या बताऊँ मैं आलम धुआँ धुआँ न हुआ कुछ नहीं हुआ देखा था जब कि पहले-पहल उस ने आईना उस वक़्त मैं वहाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ वो इक जमाल जलवा-फ़िशाँ है ज़मीं ज़मीं मैं ता-ब-आसमाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ मैं ने बस इक निगाह में तय कर लिया तुझे तू रंग-ए-बेकराँ न हुआ कुछ नहीं हुआ गुम हो के जान तू मिरी आग़ोश-ए-ज़ात में बे-नाम-ओ-बे-निशाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ हर कोई दरमियान है ऐ माजरा-फ़रोश मैं अपने दरमियाँ न हुआ कुछ नहीं हुआ

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