ये अक्सर तल्ख़-कामी सी रही क्या
ये अक्सर तल्ख़-कामी सी रही क्या मोहब्बत ज़क उठा कर आई थी क्या न कसदम हैं न अफ़ई हैं न अज़दर मिलेंगे शहर में इंसान ही क्या मैं अब हर शख़्स से उकता चुका हूँ फ़क़त कुछ दोस्त हैं और दोस्त भी क्या ये रब्त-ए-बे-शिकायत और ये मैं जो शय सीने में थी वो बुझ गई क्या मोहब्बत में हमें पास-ए-अना था बदन की इश्तिहा सादिक़ न थी क्या नहीं है अब मुझे तुम पर भरोसा तुम्हें मुझ से मोहब्बत हो गई क्या जवाब-ए-बोसा सच अंगड़ाइयाँ सच तो फिर वो बे-वफाई झूट थी क्या शिकस्त-ए-ए'तिमाद-ए-ज़ात के वक़्त क़यामत आ रही थी आ गई क्या

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